MAAND PRAVAH.COM…..
सभी जानते हैं कि कोविंद कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने के लिए, शुरूआत ही कई विधानसभाओं के कार्यकाल पांच साल की तय अवधि से घटाने या बढ़ाने से करनी होगी, ताकि चुनाव साथ-साथ हो सकें। यानी शुरूआत ही, राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता पर भारी और बुनियादी हमले से की जाएगी!
नरेंद्र मोदी की सरकार ने आखिरकार, तथाकथित ‘एक देश, एक चुनाव’ के अपने नारे पर अमल की राह पर कदम उठाने का फैसला कर लिया है। इस दिशा में पहला आधिकारिक कदम उठाते हुए, केंद्रीय कैबिनेट ने पूर्व-राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित उच्चस्तरीय कमेटी की सिफारिशों पर अपने अनुमोदन की मोहर लगा दी। कोविंद कमेटी ने मार्च के महीने में राष्ट्रपति को अपनी सिफारिशें दे दी थीं, जिनमें नरेंद्र मोदी के इस चहेते ‘सुधार’ को लागू करने के तरीके सुझाए गए हैं। मोदी सरकार के पहले सौ दिन पूरे होने और प्रधानमंत्री मोदी के जन्म दिन के अगले ही दिन, मंत्रिमंडल के इस फैसले की घोषणा, इससे हैडलाइन प्रबंधन के हित साधे जाने की ओर, काफी साफ तौर पर इशारा करती है। मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन पूरे होने के जश्न का जितना शोर था, उसे देखते हुए उसकी उपलब्धियों के तौर पर दिखाने-बताने के लिए कुछ खास चूंकि नहीं था, ‘एक देश एक चुनाव’ के मोदी सरकार के फैसले को ही बड़ी हैडलाइन बनाने की कोशिश की जा रही थी।
इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि मंत्रिमंडल के अनुमोदन की घोषणा के बावजूद, यह स्पष्ट है कि खुद मोदी सरकार भी, अपने इस प्रिय नारे के निकट भविष्य में अमल में आने की कोई संभावना नहीं देख रही है। इसकी वजह सिर्फ यही नहीं है कि इस व्यवस्था को अमल में लाने के लिए, देश के कानूनों में ही नहीं, संविधान में भी इतने सारे संशोधनों की आवश्यकता होगी, जो सब आसानी से होने वाला नहीं है। सभी जानते हैं कि संविधान संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों से दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदन की और कुछ मामलों में आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन की भी जरूरत होगी; और अपनी उल्लेखनीय रूप से घटी हुई ताकत के चलते मोदी सरकार अब, विपक्ष के खासे बड़े हिस्से के समर्थन के बिना इन संविधान संशोधनों के पारित होने की उम्मीद कर ही नहीं सकती है।
इसी सच्चाई को देखते हुए, मोदी सरकार के अब तक के मिजाज के विपरीत और उसकी घटी हुई ताकत के अनुरूप, इस योजना को लागू करने के लिए मंत्रिमंडल में से एक इंप्लीमेंटेशन ग्रुप के गठन का ही ऐलान नहीं किया गया है, बल्कि सरकार की ओर से इसका भरोसा दिलाने की भी कोशिश की गयी है कि वह तो इस मामले में कंसेंसस यानी सर्वानुमति बनाना चाहती है। कंसेंसस बनाने की इच्छा का यह दिखावा इसे उजागर करने के लिए काफी है कि खुद सरकार भी, इस मामले में जल्दी से कोई प्रगति होने की उम्मीद नहीं रखती है। वास्तव में, सरकार की ओर से उक्त निर्णय की घोषणा करते हुए, सूचना व प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने न सिर्फ इस पर अमल के लिए कोई ठोस समय सीमा बताने से इंकार कर दिया, उन्होंने 2029 के आम चुनाव से इस पर अमल शुरू होने का आश्वासन देने तक से इंकार कर दिया! इस लिहाज से इस फैसले की तुलना, महिला आरक्षण के मोदी सरकार के ही फैसले से किए जाने पर भी किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। महिला आरक्षण के भी 2029 के आम चुनाव तक लागू हो पाने के तो कोई आसार हैं ही नहीं।
नरेंद्र मोदी की ‘बड़े फैसले’ लेने वाले नेता की आत्मछवि के लिए अब ऐसे फैसलों पर निर्भरता बढ़ती जा रही लगती है, जो प्रचार के लिए तो बड़े फैसले हैं, पर जिनका जमीन पर उतरना बहुत दूर नजर आता है। 2024 के आम चुनाव में भाजपा के बहुमत से नीचे रह जाने और सरकार बनाने के लिए गठबंधन की राजनीति करने पर निर्भर हो जाने के बाद, आम तौर पर ऐसा समझा जा रहा था कि अब मोदी सरकार को, ‘एक देश एक चुनाव’ और ‘समान नागरिक संहिता’ जैसे अपने नारों को उठाकर रखना पड़ेगा, जिनको यथार्थ में उतारना वैसे भी बहुत मुश्किल था। बहरहाल, तीसरी पारी में भी कुछ भी नहीं बदलने की शुरू से ही छवि बनाने में सचेत रूप से जुटी मोदी सरकार ने, अपने मंसूबों में कुछ बदलाव नहीं होने की हवा बनाने के लिए, ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे को आगे बढ़ाने का फैसला कर लिया लगता है, भले ही इस पर अमल हो सकने की खुद उसे भी उम्मीद नहीं हो।
हैरानी की बात नहीं होगी कि मोदी सरकार अभी कुछ अर्सा इसी ‘बड़े फैसले’ पर अपना ध्यान केंद्रित रखे और ‘समान नागरिक संहिता’ के मुद्दे को उत्तराखंड द्वारा इसके लिए कानून तक बना दिए जाने के बावजूद, फिलहाल पीछे कर दे। यह इसलिए भी संभव है कि समान नागरिक संहिता के पक्ष में तेलुगू देशम, जनता दल (यूनाइटेड) तथा लोक जनशक्ति पार्टी जैसे सहयोगी दलों को साथ बनाए रखना आसान नहीं होगा, जबकि ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर इन पार्टियों को जनतंत्र तथा संघवाद से जुड़ी आम आपत्तियों को पीछे रखने के लिए, अपेक्षाकृत आसानी से तैयार किया जा सकता है। ये पार्टियां वैसे भी किसी सिद्घांतनिष्ठता के लिए नहीं जानी जाती हैं। फिर कंसेंसस बनाने के लिए काम करने का दिखावा भी है, जो सहयोगियों की संभावित आपत्तियों को फौरी तौर पर स्थगित करा सकता है। और सबसे बढ़कर यह कि यह बहुत दूर का लक्ष्य है, जिसे लेकर सत्ताधारी गठबंधन के लिए तत्काल समस्या पैदा होने की कोई वजह नहीं है।
बहरहाल, सत्ताधारी भाजपा को और उसके सहयोगियों को बखूबी पता है कि इस मामले में कंसेंसस की बातों का कोई मतलब नहीं है। इसकी वजह यह है कि विपक्ष का बड़ा हिस्सा, जिसमें इंडिया गठबंधन के लगभग सभी दल शामिल हैं, इस योजना के विरोध का रुख अपना चुका है। और यह विरोध, सिर्फ व्यावहारिकता के पहलू से नहीं है, जैसाकि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे की केंद्रीय कैबिनेट के फैसले पर पहली प्रतिक्रिया के एक हिस्से को उठाकर, भाजपा ने दिखाने की कोशिश की थी। यह विरोध, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण तरीके से, इस योजना के जनतंत्रविरोधी और उसमें भी सबसे बढ़कर संघवाद विरोधी होने का है। और इस विरोध को कंसेंसस की किसी भी कसरत से पाटा नहीं जा सकता है।
सभी जानते हैं कि कोविंद कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने के लिए, शुरूआत ही कई विधानसभाओं के कार्यकाल पांच साल की तय अवधि से घटाने या बढ़ाने से करनी होगी, ताकि चुनाव साथ-साथ हो सकें। यानी शुरूआत ही, राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता पर भारी और बुनियादी हमले से की जाएगी! लेकिन, इसी पर संघवाद पर हमले का अंत नहीं हो जाएगा। साथ-साथ चुनाव होने के बाद, विधानसभाओं का लोकसभा जितनी अवधि तक चलना भी सुनिश्चित करना होगा। कोविंद कमेटी की सिफारिश के अनुसार, पांच साल से पहले किसी सरकार के बहुमत गंवाने के चलते गिर जाने और बहुमत पर आधारित दूसरी सरकार न बन पाने की सूरत में, विधानसभा का मध्यावधि चुनाव तो होगा, लेकिन विधानसभा के बचे हुए कार्यकाल के लिए ही। इस तरह, जीवन काल के हिसाब से भी विधानसभाएं कई श्रेणियों में बंट जाएंगी और न समान कार्यकाल रहेगा और न एक साथ चुनाव। ‘एक चुनाव’ का मूल पूरा तर्क ही विफल हो जाएगा।
लेकिन, ‘एक देश, एक चुनाव’ की योजना की मुख्य समस्या इतनी भर नहीं है कि यह संघात्मक व्यवस्था में राज्यों की और स्थानीय निकायों की भी स्थिति को, उनके अधिकारों को कमजोर करती है। इस योजना की इतनी ही बड़ी समस्या यह भी है कि यह पूरी राजनीतिक व्यवस्था का ही केंद्रीयकरण कर, केंद्रीय शासन से नीचे के सभी संस्तरों, जैसे राज्य, स्थानीय निकायों का जनतांत्रिक सार छीन लेगी। ऐसा किया जाएगा, इस विशाल और असाधारण रूप से ज्यादा विविधताओं से भरे देश पर, एक पूरी तरह से एकरूप तथा केंद्रीकृत चुनाव व्यवस्था थोपने के जरिए। संक्षेप में यह योजना, संसद से लेकर पंचायत तक सारे चुनाव, एक नरेंद्र मोदी की तस्वीर पर और केंद्रीयकृत मुद्दों पर ही कराने की योजना है। इस तरह का चुनाव विकेंद्रीकरण के लक्ष्य को लेकर, जमीनी स्तर की ओर बढ़ते हुए, उत्तरोत्तर प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को ही पलटकर, सभी स्तरों पर केंद्र के मिनिएचर ही थोप रहा होगा। यह जनता के लिए अलग-अलग स्तरों पर, अपने विवेक से अलग-अलग चुनाव की संभावनाओं को ही खत्म कर देगा और हमारे जनतंत्र को अति-केंद्रीयकृत कर के, भीतर से पूरी तरह से खोखला कर देगा। हालांकि, कोविंद कमेटी ने स्थानीय निकायों के चुनाव लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के सौ दिन बाद कराने का प्रस्ताव किया है, लेकिन इससे भी स्थानीय निकायों की स्वायत्तता की कोई रक्षा नहीं होने वाली है।
पिछले चुनाव के समय सत्ताधारी भाजपा पर संविधान और जनतांत्रिक व्यवस्था पर हमले का जो आरोप लगा था, ‘एक देश, एक चुनाव’ की योजना के रूप में, सच्चाई का रूप लेता नजर आ रहा है। इंडिया गठबंधन को, संविधान तथा जनतंत्र पर हमले के हिस्से के तौर पर ही इस योजना का मुकाबला करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)